कहते हैं लोग कई
कि
फितरत में है मेरी रूखापन.
शायद किसी रोज़
एक बीज को भी
ऐसा ही कुछ
ऐसा ही कुछ
कहा होगा किसी ने
और गुस्से से
फ़ेंक दिया होगा
मिट्टी पे.
मिट्टी पे.
फ़िर,
आई होगी बरसात
और उसके बाद
गुनगुनी धूप.
फूटें होंगे अंकुर
उस कठोर निष्ठुर बीज से.
मिट्टी, पानी और धूप
के प्यार से
अंकुर बदला
एक मासूम पौधे में
और पौधा
एक वृहद् वृक्ष में.
शायद वही वृक्ष
आज मेरे आँगन में
मीठे रसीले फलों से झुका खड़ा है
और बाँट रहा है
अपनी ठंडी छाया
फलों की महकती बयार.
क्या होता
अगर फेंका न होता
गुस्से से मिट्टी में उसे?
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